Sunday 9 July 2017

मौसम ,चाय और हम

गर्मियों की तपती लू भरी दोपहरी में बरखा की छीटें सुहावनी होती हैं। बदलना ही जीवन है सो मौसम भी बदलता है। बरसात हौले से वेग पकड़ती है। बरसात अपने साथ लाती है उदासी।खिड़की से झाँकती बूँदें आँसू साथ लाती हैं। मन बेवज़ह उदास रहता है। इसी उदासी में मुझे चाय याद आती है। चाय उदासी को दूर भगाने का ज़रिया है।चाय बनाना कोई बड़ा कार्य तो है नहीं। सम्पूर्ण रेसिपी बस चार-पाँच स्टेप में सिमटी होती है।अनमनी सी उठती हूँ, इधर-उधर देखती हूँ और उलझे बाल हाथ से ही सँवारती हूँ। पानी में अक्स देखना अदभुत होता है। बनती बिगड़ती आकृति ध्यान भटकाती है। गैस पर पानी उबलने देती हूँ। गैस सिम पर रखती हूँ। जितना धीमे पानी खौलेगा उतना ही अच्छी तरह संक्रामक विचार भागेंगें। वाश बेसिन का नल खोल देती हूँ। पानी का बहाव विचारों को गति देता है। जब तक पानी उबलेगा तब तक पानी से मुँह थपथपा कर धोती हूँ। हर छपाक के साथ एक लय बनती है। नर्म सफ़ेद हैंड टॉवल सिहरन सी उत्पन्न करता है। अपने होने का अहसास होता है। इस बीच पानी उबल जाता है। पानी में उठते बबूले मन की हालत बयां करते हैं। जरूरत होती है एक अरोमा की। चाय में इलाइची , लौंग और एक नन्हा सा टुकड़ा दालचीनी कमाल का जादू बिखेरती है। जिन्दगी बिन मसाले भी बेमज़ा हो जाती है। पानी फिर उबलने लगता है। मसलों का अरोमा सोये हुए दिमाग को जगाने लगता है। आहिस्ता से चाय की पत्ती डाल देती हूँ और उसकी कड़वाहट दबाने के लिए शक्कर भी। उदासी मिठास से एक फीकी मुस्कुराहट बनने से बच जाती है। रंग धीरे-धीरे पानी में समाता जाता है। रंगहीन पानी की सबसे बड़ी खूबी है वह जो भी साथ आया उसको अपनाने के लिए उत्सुक हो उठता है। दूध मिलाती हूँ जो सुनहरे रंग की ऐसी रश्मियाँ छोड़ता है जो मन्त्रमुग्ध कर देती है। बस एक उबाल और देती हूँ और मुस्कुराते सफ़ेद कप में चाय छान देती हूँ। मौसम की बेवज़ह उदासी न जाने कहाँ चली जाती है।

बस एक चाय का प्याला ही तो चाहिए उदासी दूर भगाने के लिए  😊

Friday 30 June 2017

कुछ दिनों से देख रही थी
कुछ विशेष प्रिय
अपने पुराने पौधों को
विरक्ति का भाव था जैसे
उनमें समाया ।

छुईमुई का पौधा जो
ऊँगली दिखाते ही
त्वरित गति से
शर्म से गुलाबी हो
अपने आपको समेट लेता था , अब
वह सिर्फ मुंह मोड़ लेता है जग से ।

बेले की बेशुमार कलियाँ
मिलकर जूही के सितारों के संग
मुस्कुरा कर पास बुलाती थीं , पर
आजकल खिलने से पहले ही
न जाने क्यों
मुरझा जाती थीं ।

आज सुबह पूरे उपवन का
नज़ारा ही बदला हुआ था ....
वर्षों से ठूठ-सा खड़ा
बरगद का पेड़
धीमे-धीमे मुस्कुरा रहा था ,
सुन्दर , सलोनी
चमकीली
दो कोमल हरी पत्तियां
उसके बेजान तने की
फुनगी पर झांक रही थीं ।

आज बेला अपने
पूरे शबाब पर था ,
जूही ने तो जैसे बाजी ही जीत ली हो
असंख्य सितारों की तरह
झिलमिला रही थी ,
छुईमुई का तो आज
अंदाज़ ही निराला था , वह
देखते ही झट
अपने आप में शर्मा के छिप गया ।

आज पूरी बगिया
मुस्कुरा रही थी
गा रही थी
एक नई सरगम
एक नया गीत .........

वापसी सुखद भी होती है। ब्लॉग पर वापस लौटना सुकून दे रहा है। जीवन की आपाधापी में एक कोना अपने लिए भी होना ही चाहिए। कभी ख़ुद से तो कभी दोस्तों से बतकही मन के खालीपन को गुलज़ार करती है।

मिलेंगें हम 😊

नीता मेहरोत्रा 

Saturday 28 February 2015

न्याय

गाँव के लोग बहुत ख़ुशहाल थे। आपस में सदभाव था। राजा साहब अपनी प्रजा का बहुत ख़्याल रखते थे। गाँव वालों के घर जब भी सुख हो या दुःख हमेशा एक चाँदी के थाल में रख कर उनकी जूती अवश्य उपस्थित रहती। उनका मानना था कि सुख में उनका उपस्थित होने से उत्सव का महत्त्व कम हो जाता है और लोगों का सारा ध्यान उनके ऊपर केन्द्रित हो जायेगा तथा दुःख में जाने से किसी का दुःख कम न होगा उल्टा अपना शोक भूल कर उनकी आवभगत करनी होगी।

वक़्त आगे बढ़ता रहा। राजमहल में शोक हुआ। राजमाता का गुज़र जाना राजा साहब सहन न कर पा रहे थे। राजपरिवार में और किसी के न होने से अकेले पड़ गए थे।

अंतिम यात्रा की तैयारी पूरी हो चुकी थी। सदर फाटक खोला गया।

ओह !!! ये क्या !!!

फाटक से लेकर जिधर भी नज़र जाती सारे रास्ते पर कपड़े से ढ़की हुई थालियाँ रखी थी जिनके अन्दर जूतियाँ थी .......